मेरी बेटी के लिए मेरा कबूलनामा: मुझे एक बेटा चाहिए था

wanted a son

आपने कभी ईसाई चर्चों में मिलने वाले ‘कंफ़ेशनल’ या ‘कन्फेशन बॉक्स’ देखे हैं? वही जहाँ ईसाई लोग चर्च के पादरी के सामने अपने पाप या अपराध बोध को स्वीकार करते हैं? कभी-कभी मेरा ब्लॉग मुझे ऐसे ही कन्फेशन बॉक्स जैसा लगता है। मैं भारी मन से इसमें प्रवेश करती हूं, और आपके सामने अपने अपराध को स्वीकार करते हुए अपने मन के बोझ को हल्का करना चाहती हूं। आज की मेरी यह स्वीकारोक्ति, कि मुझे एक बेटा चाहिए था, मैं चाहती हूँ कि मेरी बेटी भी पढ़े। हाँ, जब वह थोड़ी बड़ी हो जाए। मुझे उम्मीद है कि वह मुझे माफ कर देगी

यह सर्वविदित है कि भारत में भ्रूण का लिंग निर्धारण प्रतिबंधित है। इसका कारण देश में कन्या भ्रूण हत्या की उच्च दर है। और कन्या भ्रूण हत्या के कारणों के बारे में मैं अपने पिछले हिन्दी पोस्ट में बात कर चुकी हूँ। 

सभी यह भी जानते हैं कि भारत में आमतौर पर बेटियों से ज्यादा बेटों के जन्म की ख़ुशी मनाई जाती है। मेरे पति जिस जातीय समुदाय के हैं, उसमें अभी भी एक बेटे की पहली लोहड़ी को बहुत उत्साह के साथ मनाने का रिवाज है। बेटी के लिए ऐसा रिवाज नहीं है। मेरे अपने जातीय समुदाय में एक ऐसा ही रिवाज मौजूद है। मैं एक अन्य समुदाय के बारे में जानती हूं जहां गर्भावस्था के दौरान बेटे के जन्म के लिए एक पूजा समारोह आयोजित किया जाता है।

हालांकि इन दिनों कई परिवार हैं जो अपने घरों में इस भेदभाव को अंत कर चुके हैं। बेटी के जन्म पर भी वे बहुत आनंदित हुए हैं। लेकिन ये परिवार अभी भी अपवाद ही प्रतीत होते हैं।


कैसे मैं एक बेटा चाहने लगी 

यह उस समय की बात है जब मैं गर्भवती थी। जिन लोगों से मैं अपनी गर्भावस्था के दौरान मिलती, उनमें से कई मेरी ओर देखकर यह आकलन करने की कोशिश करते कि मैं एक बेटे की माँ बनने वाली थी या बेटी की। उनकी भविष्यवाणियों के आधार होते- गर्भावस्था में मेरे चेहरे की चमक (या साफ़ कहूँ तो उसकी कमी), मुँहासे, या मेरे पेट का उभार। कुछ लोग मेरी खाने की इच्छाओं के आधार पर निर्णय लेते। कुछ कहते कि उन्हें ‘बस, पता था’। ज्यादातर मामलों में पूर्वानुमान एक लड़के का ही था। बेशक, मुझे पता था कि यह सब अवैज्ञानिक था, और मैं यह भी जानती थी की ये लोग सिर्फ मुझसे बातचीत करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि वे मुझे ‘अच्छा’ महसूस कराने की भी कोशिश कर रहे थे। और मुझे अच्छा मह्सूस भी हुआ।

मुझे लगता है, मेरे अवचेतन में दबी, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की किसी आवश्यकता ने मुझे इन भविष्यवाणियों पर विश्वास दिला दिया था। और इस आवश्यकता ने मेरे मन में, एक बेटे की माँ के रूप में मेरे साथ किये जाने वाले विशेष व्यवहार की आस भी जगा दी थी। यह एहसास मुझे तब हुआ जब मुझे लेबर रूम में हुई दो घटनाओं पर विचार करने का समय मिला।

कैसे मुझे एहसास हुआ कि मुझे एक बेटा चाहिए था

पहली घटना जिसने मुझे महसूस कराया कि मुझे एक बेटा चाहिए था, मेरी बेटी के जन्म के तुरंत बाद हुई। जब डॉक्टर ने मुझे बताया कि मुझे एक ‘छोटी-नेहा’ मिली है, तो मैं हैरान थी। मेरा आश्चर्य मेरे चेहरे पर दिखाई भी दिया होगा। क्योंकि डॉक्टर ने मेरे हाव-भाव को देखा और पूछा कि मुझे क्या चाहिए था! आज तक, वो आश्चर्य और वो सवाल मुझे दोषी महसूस कराते हैं।

मेरी चेतना में मैंने कभी पुत्र की आशा नहीं की थी, या पुत्री के ऊपर पुत्र को नहीं चाहा था। मेरी चेतना में मैंने हमेशा खुद को एक नारीवादी समझा। किसी भी लैंगिक रूढ़िवादिता में विश्वास नहीं किया। लेकिन उस समय, मेरे चेतन और अवचेतन मन आमने-सामने थे। मेरे आश्चर्य ने मुझे ही चौंका दिया था।

अगले पल डॉक्टर ने मेरी बेटी को मेरी गोद में डाल दिया और उस पल के लिए सब ठीक हो गया। लेकिन मेरे अवचेतन में कुछ भावनाएँ अभी भी अनसुलझी रही होंगी। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि बाद में जब मेरी सासू-माँ हमसे मिलने के लिए कमरे में आईं तो मैं उन्हें देखते ही रोने लगी। और ये अपराधबोध के आंसू थे, खुशी के नहीं। मैं उन्हें एक पोता नहीं दे पाने की वजह से रो रही थी।

सच कहूं, तो मुझे याद नहीं कि मेरी सासू-माँ ने कभी मेरे अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में एक शब्द भी कहा हो। फिर भी मेरे अवचेतन में सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की वही पुरानी आवश्यकता अब मेरी सासू-माँ से जुड़ गई थी। उनकी तरह बेटे की मां बन कर, मैं शायद उनसे भी कुछ मान्यता पाना चाहती थी।

मेरी आशा की पूर्ति

जब भी मैंने इन दो घटनाओं को दोबारा याद किया है, मैंने अपनी बेटी से मन ही मन माफी मांगी है। इस बार, मैं इसे लिखित रूप में माँगना चाहती थी। मेरे अवचेतन मन ने उस समय जो कुछ भी उम्मीद की होगी, मेरी बेटी के जन्म के बाद से मुझे कोई और उम्मीद नहीं रही। मैं उससे बहुत प्यार करती हूं।

और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मैं एक बच्ची से प्यार करने वाली मां के रूप में कोई अपवाद हूं। मैं ऐसे कई दोस्तों और परिवार के सदस्यों को जानती हूं जो अपनी बेटियों पर जान छिड़कते हैं। मैं जानती हूं कि मेरे माता-पिता भी केवल मुझे और मेरी बहन को पाकर ही संतुष्ट थे। लेकिन मुझे यह भी पता है कि बेटी के जन्म से पहले, अवचेतन की  उस आवश्यकता के अपराधबोध को महसूस करने वाली भी मैं अकेली नहीं हूं। मेरा अनुमान है कि मेरी मां ने भी इसे महसूस किया है।

हालाँकि उन्होंने भी कभी ऐसा नहीं कहा, लेकिन मुझे लगता है की मेरी गर्भावस्था के दौरान वह भी पोते की उम्मीद कर रही होंगी क्यूंकि वह नहीं चाहती होंगी कि मुझे वो सब सुनना या सहना पड़े जो ‘सिर्फ बेटियों को जन्म देने वाली  माँ’ के रूप में उन्होंने सुना और सहा। मैं यह पोस्ट उनके लिए भी लिख रही हूं। मैं इसे इसलिए भी लिख रही हूं क्योंकि मैं चाहती हूं कि कन्फेशन बॉक्स में खड़ी अगली माँ को पता चले कि वह अकेली नहीं है।

और यह कि इस अपराध बोध के लिए हम पूरी तरह से जिम्मेदार भी नहीं हैं।

तो इस अपराध बोध के लिए दोषी कौन है?

दोषी यह समाज है जो मातृत्व को लैंगिक पूर्वाग्रह के साथ उलझा देता है। यह अभी भी एक बेटी की मां से ज्यादा बेटे को जन्म देने वाली महिला को श्रेष्ठ मानने का दोषी है । यह अभी भी वैज्ञानिक तथ्यों को नहीं मानने का दोषी है। तथ्य  जैसे अपने बच्चे के लिंग के लिए जैविक रूप से पिता का जिम्मेदार होना। तो अगर बच्चे का लिंग, किसी दबाव या ख़ुशी का कारण होना चाहिए, तो ऐसा पिता के लिए होना चाहिए।

वैसे भी, आज के पिता के लिए रोल-रिवर्सल नयी बात नहीं हैं। उस दिन लेबर रूम में मेरी बच्ची का पिता खुशी के आंसू रो रहा था। काश वही ख़ुशी के आँसूं मेरी आँखों में भी होते!

10 thoughts on “मेरी बेटी के लिए मेरा कबूलनामा: मुझे एक बेटा चाहिए था

  1. बहुत ही साफ और सच्ची बात लिखी तुमने मैं समझ सकती हूं तुम्हारी इस भावना को क्योंकि मैंने अपनी मां को इस पीड़ा से गुजरते देखा है 6 बेटियों को जन्म देने के बाद हर बार वह किस दुख और निराशा से गुजरती होंगी यह मैंने बड़े होने के बाद जाना था यद्यपि मेरी माता और पिता ने कभी भी हम लोगों को कभी भी महसूस नहीं होने दिया था कि उन्हें कभी बेटे की भी चाह थी मुझे याद है एक बात कि हमारे यहां बेटे की मां संतान सप्तमी का व्रत और पूजन करती थी ।तब मेरी मां को बहुत ज्यादा दुख होता था कि वे यह पूजन और व्रत नहीं कर पाती थी एक बार जब मैं मायके में थी और यह त्यौहार पड़ा,मैंने जिद कर मां को यह व्रत रखवाया आया और सब के साथ उनको भी पूजा में बिठाया। मैं आज भी उनके चेहरे की वह खुशी याद कर सकती हूं क्योंकि वे दिन भर बेहद खुश और प्रफुल्लित थी क्योंकि मैंने उनसे कहा था कि संतान सप्तमी का व्रत संतान के लिए होता है ना कि सिर्फ बेटे के लिए आप व्रत कीजिए क्योंकि आपके पास संतान है।थैंक्यू नेहा तुम्हारी बाते दिल को छू लेती है

    1. वाह आंटी! थैंक यू कि आपने अपना अनुभव भी यहाँ साझा किया ! साथ ही थैंक यू मेरी लिखी बात पड़ने के लिए.

  2. Mere pass bhi ik hi beti hai. Aur mere man ke kisi kone me n pet me rahte n bahar aakr muje kabhi lga ki kash beta hota. Beta aapki taleef to hum Pancho bahine samaj sakte hai.dil ko chu lene vali post.

  3. बहुत ही अच्छा लेख नेहा, तुम्हारा हर लेख पढती हूं,और नए अनुभव को महसूस करती हूं। आज इस लेख से मेरे मन में 10 साल से दबी एक बात साँझा करती हूं। 10 साल पहले मेरा दूसरा बेटा हुआ था। तब मुझे किसी ने कहा था “तुम्हें तो ऑसु पोछने वाली बेटी भी नहीं दी भगवान ने ” ये शब्द सुनकर में अंदर तक हिल गई थी,कि दूसरा बेटा हुआ तो ये कह रहे हैं। 2 बेटी हो जाती तो? ये हमारा समाज ही है,जो हमारे अवचेतन मन को बना देता है और हम वो ही सब सोचने लग जाते है। इसमे किसी माँ का दोष नहीं, समाज का है, जहां हम बड़े हुए।

  4. Bahut hi badiya lekh neha di
    Or ye bhi sach h ek maa kabhi aapne bachho m gender k according difference nhi karti, ya wo chahti h ki bas ladka hi ho but logo ki expectations hume aisa sochne par majboor kar deti h
    Kyoki beta ka hona aaj bhi family ko complete karta h beti ka hona nhi
    Or ye bhi sach h hum jo humare pas h usse khush hote h but bar bar jo tane milte h wo hume aisa sochne par majboor karte h
    jab pregnant thi tab sab yahi kahte the dekh kar ki beta hi hoga esliye suna toh mene bhi bahut h beti hone k baad
    But don’t worry be happy kuchh toh log kahege logo ka kam h kahna

  5. Bahut badhiya Neha. Yeh feelings aaj bhi hum mein sirf Hamare aas paas ke log hi dalte hain. Mein bhi ek ladki ki Maa hoon aur jaanti hoon but mein apni beti mein khud ko dekhti hoon. Woh jo ladka ladka karte the aaj meri hi Beti ko dekh kar khush hote hain kyonki ladke apne mein rehte hain magar ladkiyan hum sab mein rehti hain.

  6. First of all, I will congratulate neha for writing such an appropriate and thoughtful write up and posting it. Next it’s ladies only who are responsible for such mentality of having a boy for ‘vansh’ chalana.
    But nowadays there is no difference between a boy and a girl in fact girls are more responsible, dutiful and emotional for their duties for their family, whether it’s husband, children or parents.
    Wo karte hain na
    Dono kul ki laaj nibha de.
    Infact nowadays I personally feel ppl. Should have a daughter.

  7. Very well written Neha ji.
    Very Thoughtful

    Well, I have two daughters and from my 14 years of experience of working in Psychiatry and understanding human behavior and diffent cultures …. the concept of ” Beta hona Chahiye ” is a concept more in women mind then men.Atleast in current world.

    One of the schools of Psychiatry always believed that there is natural inclination of father towards their daughters and mother for their sons.

    So having a wish of a women of male child is okay and acceptable.

    The beauty lies in accepting the natural selection and moving forward from there, which obviously great women like you are doing.

    Hats off and best wishes
    Dr Raman Sharma

    1. हेलो नेहा,
      आपका लेख पड़ा,मुझे बहुत पसंद आया।मेरे परिवार में हम भी चार बहनें और दो भाई है। घर में मां पिताजी ने कभी भी भेद भाव नही किया ।बल्कि कई बार मेने अपने पिताजी को बोलते सुना है की मुझे भगवान ने चार बेटियों के बदलें छः बेटियां दी होती तो मैं ज्यादा खुश होता क्यू की हम उनकी छः संतान थी।हम बहनों को देख कर वे बहुत खुश होते थे। मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत समझती हूं की मै इतने सुलझे हुए विचारो वाले अविभावक की बेटी हूं ।मैने कई परिवार में देखा है बेटे की चाह में बेटियों की गिनती बढ़ती जाती हैं,और दोष बेटियों को दिया जाता है,ये दोष अपने अविभावक का नही समाज का दोष है। मुझे दो बेटे है , जब मैं दूसरी बार प्रेग्नेंट थी तब हमेशा भगवान से प्रार्थना करती थी की मुझे अबकी बार बेटी देना पर मुझे दूसरा भी बेटा हुआ।बेटी की मां न बनने का अफसोस हमेशा रहता है।

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