भारतीय शादी में कैसे होती है लिंग के आधार पर राजनीति

Indian weddings
चित्र पिक्साबे से ८१८०७६६ द्वारा 

मैं हमेशा से भारतीय शादियों में होने वाली लैंगिक राजनीति के प्रति कुछ ज्यादा संवेदनशील रही हूँ। बचपन से ही इस बारे में बात करती आ रही हूँ । मुझे यकीन है कि मेरे परिवार का हर सदस्य जो इस लेख को पढ़ेगा, वो कहेगा, “लो, ये फिर शुरू हो गयी”! 

अगर आप भारत में पले-बढ़े हैं तो आपने ‘लड़कीवाले’ और ‘लड़केवाले’ – इन दो शब्दों को सुना ही होगा, और आप इन के मायने भी समझते होंगे। फिर भी, अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं आपसे एक प्रश्न पूछती हूँ। क्या आप उस एक हिंदी फिल्म का नाम बता सकते हैं जो लड़कीवालों और लड़केवालों के बीच के संबंधों का आदर्श दर्शाती है?

जी हाँ, वह फिल्म है ‘हम आपके हैं कौन’। यह फिल्म समधियों के सौहार्दपूर्ण संबंधों का मापदंड बन चुकी है। फिर भी, यह फिल्म इन रिश्तों में असमानता की बात भी करती है | अरे! क्या आपको याद नहीं है? फिल्म के उस समधी-समधन वाले गीत से ठीक पहले जब अनुपम खेर अपने पुराने दोस्त ‘कैलाशनाथ’ को कहते हैं कि कल से उनका ज़माना नहीं रहेगा? वो हाथ जोड़कर आगे कहते हैं, “लड़कीवाले हैं, झुकना तो पड़ेगा ही|” कैलाशनाथ हँस पड़ते हैं! परंतु मैं नही हँस पाती। (जी हाँ, मैं वह नारीवादी हूं जो हर छोटी असमानता पर ध्यान देती है!)

मैं हमेशा इस सोच में पड़ जाती हूं कि क्यों भारत में लड़कीवालों को लड़केवालों के सामने झुकना पड़ता है। वो क्या है जो लड़कीवालों को इस रिश्ते में एक कमज़ोर पक्ष बनाता है? सिर्फ ये कि वो दुल्हन का परिवार हैं, ना कि दूल्हे का? तो फ़िर वो क्या है, या कौन है, जो दूल्हे को इस रिश्ते में ज़्यादा ताकतवर पक्ष बनाता है?

अपराधी कौन?

जवाब है- कोई और नहीं बल्कि खुद लड़कीवाले! दुल्हन का परिवार ही दूल्हे को यह ओहदा और ताकत देता है।

ज़रा सोचिए। हमारा कानून कहता है कि दोनों लिंग समान हैं। हमारे कानूनों ने दहेज की मांग को दंडनीय अपराध बना दिया है। उसके बाद से लड़केवालों ने दहेज की मांग करना बंद कर दिया है। ‘दहेज’ अब हमारे समाज में एक बुरा शब्द है। फिर भी, लड़कीवाले ‘उपहारों’ के नाम पर इस कुख्यात परंपरा को जारी रखना चाहते हैं।

कैसे आता है भारतीय शादियों में लैंगिक असंतुलन

मैं एक बार एक ऐसी शादी में सम्मिलित हुई हूँ जहाँ एक बिलकुल नई कार, जो दुल्हन के माता-पिता ने नव दंपत्ति को उपहार में दी थी, प्रदर्शन के लिए रखी हुई थी। मैं कुछ ऐसे समुदायों के बारे में भी जानती हूँ जहाँ शादी समारोहों में, लड़कीवालों को वो गहने आदि ‘प्रदर्शित’ करने होते हैं जो उन्होंने दुल्हन के लिए खरीदे हैं। यदि ये सब ‘उपहार’ केवल स्नेहवश दिए जाते है, जैसा कि लड़कीवाले कहते हैं, तो प्रदर्शन करने की आवश्यकता क्यों है? क्यों दुल्हन को चुपचाप ये सब सामान देकर विदा नहीं कर दिया जाता?

शादी में दूल्हे के सगे-संबंधियों को भी उपहार दिए जाते हैं। कुछ लडकीवालों ने मुझे समझाया कि ये उपहार ‘सम्मान’ या ‘स्वागत’ के रूप में दिए जाते हैं| यही लड़कीवाले ये सवाल कभी नहीं करते कि एक ‘डेस्टिनेशन वेडिंग’ में भी दूल्हे के परिवार का ‘स्वागत’ करने की जरूरत उन्हें क्यों है। या वे भी दूल्हे के परिवार से इस प्रकार ‘सम्मान’ पाने के पात्र क्यों नहीं हैं? एक बार अपनी एक दोस्त की शादी में मैंने देखा कि उसका भाई अपनी बहन के होने वाले ससुर के पैर धो रहा था| मैं पूछना चाहती थी कि क्या उस समय, या उसके बाद, कोई मेरी सहेली के पिता को भी ऐसा सम्मान देगा? परंतु मुझे पता था कि यह सवाल करने का अधिकार मेरा नहीं था, और मुझे उस सवाल का जवाब भी मालूम ही था।

ये समीकरण भारतीय विवाहित जोड़ों के जीवन में निरंतर बने ही रहते हैं। लड़की के परिवार वालों को शादी के शुरुआती सालों में लड़के वालों को हर तीज-त्योहार पर विशेष ‘सम्मान’ देना होता है| यहाँ तक कि विवाहित जोड़े के भाई-बहनों और बच्चों की शादी में भी ये प्रक्रिया लागू रहती है। 

समाज के लैंगिक असंतुलन और आर्थिक असंतुलन की दोहरी मार

संपन्न लड़कीवाले इस ‘आदर, सम्मान और स्वागत’ के और भी ऊँचे से ऊँचे मानक स्थापित करते रहते हैं। लेकिन जिनके पास समान संसाधन नहीं हैं उन्हें इन मानकों तक पहुँचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमारे कार्यालय का क्लर्क हमें बताता है कि जब उसकी बहन की हाल ही में शादी हुई तो उसके परिवार को कर्ज़ लेना पड़ा। इन्हीं कारणों से हमारे देश में ‘कन्या विवाह’ एक वैध चुनावी मुद्दा भी है| राजनेता कुछ ऐसी योजनाओं के वादों के आधार पर चुनाव जीत जाते हैं, जिनमें उनकी सरकारें गरीब लड़कियों की शादी का खर्च वहन करेंगी।

पर क्या सरकार का ‘लड़की’ की शादी के खर्च में भागीदारी करना सही है?? क्या लड़की की शादी एक माता-पिता की ज़िन्दगी का ऐसा उद्देश्य होना चाहिए जिसके लिए वह पूरी ज़िन्दगी बचत करें? आप किसी भी इंश्योरेंस कंपनी के विज्ञापन को देखें| उनमें से कोई भी बेटे की शादी में आपकी मदद करने पर आधारित नहीं होगा क्योंकि ऐसी मदद की किसी को ज़रूरत पड़ती ही नहीं।

इस लैंगिक असंतुलन से निकलने वाले निष्कर्ष

यह सब देखकर मन में सवाल उठता है कि क्या पुरुष महिलाओं से शादी कर उन पर एहसान करते हैं? क्या महिलाओं को ही शादी की आवश्यकता है, पुरुषों को नहीं?? क्या सभी भारतीय पुरुष धारा 377 के ज़रिये आपस में शादी करने को तैयार हैं, और महिलाएं ही हैं जो उनसे शादी की भीख मांगती हैं? अगर नहीं तो क्यों हमारे देश ने इस दूषित अवधारणा को स्वीकार कर लिया है कि ‘लड़कीवाले हैं, झुकना तो पड़ेगा’?

हमारे समाज की इस व्यवस्था से कोई क्या संदेश ले सकता है? कि परिवार में पुत्र का जन्म वास्तव में उत्सव का विषय है। आखिरकार, बेटे वाले होने का मतलब है कि आपको एक ऊँचे ओहदे पर रखा जाएगा। अपनी बेटी के लिए शादी का प्रस्ताव लेकर आपसे संपर्क करना अब लड़की के परिवार का सिरदर्द है। एक बेटा होने से आप विवाह-स्थल या समारोह व्यवस्था के हर निर्णय का अधिकार रखते हैं। पुत्र होने से आपको समय-समय पर उपहार भी मिलते रहते हैं। और आपका परिवार स्वतः ही समग्र रूप से ‘सम्माननीय’ हो जाता है।

लेकिन लड़की का जन्म स्पष्ट रूप से एक बोझ है। एक लड़की के माता-पिता के रूप में, अब आपको अपनी जमापूँजी को उपहारों के रूप में बाँटना है, और जीवन भर दूसरों के सम्मान में झुकना है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस देश में कन्या भ्रूण हत्या आम बात है। इतनी जवाबदारियों में कौन फंसना चाहता है?

इस व्यवस्था के उद्देश्य और उनकी हक़ीक़त

क्यों लड़कीवाले अभी भी ‘देने’ और ‘झुकने’ की इस परंपरा को छोड़ने से इनकार करते हैं? मेरे विचार में इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं| एक, उनका मानना है कि उन्हें किसी तरह दूल्हे के परिवार को मुआवजा देना चाहिए, क्योंकि दूल्हे का परिवार लड़की को अपने साथ ले जाता है और जीवन भर उसका पालन-पोषण करता है। लेकिन क्या आपको इस विचार में एक स्पष्ट दोष दिखाई दे रहा है? हमारे सुप्रीम कोर्ट ने भी अब इस दोष को समझ लिया है। हाल ही में एक मामले में यह सवाल उठा कि एक गृहिणी का परिवार की आर्थिक स्थिति में योगदान है या नहीं| कोर्ट ने फैसला सुनाया कि उसका योगदान कार्यालय जाने वाले पति के समान है। इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मृतक दंपत्ति के लिए दिए गए दुर्घटना मुआवजे को बढ़ा दिया।

तो अगर एक महिला घर में उतना ही योगदान देती है जितना कि पुरुष, तो फिर दूल्हे के परिवार को मुआवजा देने की इस सोच का कोई औचित्य ही नहीं है।

लड़कीवालों की दूसरी सोच यह हो सकती है कि शादी में दिए जाने वाले उपहार लड़की को उसके नए परिवार की स्वीकृति और अपनत्व पाने में मदद करेंगे| पर वो लोग ये नही समझ पाते की उपहारों के आधार पर सबकी स्वीकृति मिल जाना उसकी खुशियों की गारंटी नहीं है| लड़की को जितनी अधिक स्वीकृति की जरुरत होती है, वैवाहिक समीकरण में उसकी स्थिति उतनी ही कमजोर होती जाती है। और यह स्थिति जितनी कमजोर होती है, उतना उस लड़की के साथ दुर्व्यवहार करना आसान हो जाता है। उसे सशक्त बनाना ही उसकी ख़ुशी का एक मात्र रास्ता है।

अंत में

लड़कीवालों को इन वास्तविकताओं के प्रति जागरूक होने की जरूरत है। एलेनोर रूज़वेल्ट नाम की एक विद्वान महिला ने एक बार कहा था:

“आपकी अनुमति के बिना कोई आपको छोटा महसूस नहीं करवा सकता।”

भारतीय महिलाओं और उनके परिवारों को अब तक तो अपने साथ हो रहे हीन व्यवहार को सहते-सहते थक जाना चाहिए था| समय आ चुका है कि वे इस सदियों पुरानी असमानता की व्यवस्था से अपनी सहमति को वापस ले लें। एकतरफा उपहारों के रिवाज को बंद करें। सम्मान के बदले सम्मान माँगें| हमारे राजनेताओं से कहें कि वे समाज में इन असमानताओं को और प्रायोजित न करें।

अगर शादियां स्वर्ग में तय होती हैं तो धरती पर उनका राजनीतिकरण क्यों किया जाए? जो लड़केवाले और लड़कीवाले इस राजनीतिकरण को समाप्त करने में अपना योगदान दे रहे हैं, सामाजिक स्तर पर असल में वो ही सम्मान के पात्र हैं|

2 thoughts on “भारतीय शादी में कैसे होती है लिंग के आधार पर राजनीति

  1. हमारे देश में इन सामाजिक बुराइओं को संस्कृति का नाम दिया गया है। लैंगिक असमानता, अवसादकारी होते हुए एक तरह से सामाजिक तिरस्कार को बढ़ावा देती है।
    आपका ब्लॉग सराहनीय है।

  2. An open secret and naked truth, a mentality deep rooted in our minds, unfortunate part is that female members of society are mainly responsible for this social evil. Intercaste and Interreligious marriages seems the solution.

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